अट्ठाईसवाँ सूक्त

 

 अमरता के राजा देदीप्यमान अग्नि का सूक्त

 

[ ऋषि ज्ञानकी उषामें सुप्रदीप्त संकल्पाग्निका इस रूपमें स्तुति-सम्मान करता है कि वह अमरताका राजा है, आत्माको उसकी आध्यामिक समृद्धि व परम आनन्द एवं प्रकृति पर सुशासित स्वामित्व प्रदान करता है । वह हमारी हवियोका वाहक हैं, हमारे यज्ञका ज्ञानप्रदीप्त मार्गदर्शक है जो उसे उसके दिव्य और वैश्व लक्ष्य तक ले जाता है । ]

समिद्धो अग्निर्दिवि शोचिरश्रेत् प्रत्यङङुषसमुर्विया वि भाति ।

एति प्राची विश्ववारा नमोभिर्देवाँ ईळाना हविषा घृताची ।।

 

(अग्नि:) संकल्पाशक्तिकी ज्वाला (समिद्ध:) प्रज्वलित होकर (दिवि) मनके द्युलोकमें (शोचि: अश्रेत्) निर्मल प्रकाशकी ओर उठती है । (उर्विया वि भाति) वह अपनी ज्योतिका विस्तार करती है और (उषसम् प्रत्यङ्) उषाको अपने सामने रखती है । (घृताची) निर्मलतासे देदीप्यमान और (विश्ववारा) समस्त वरणीय पदार्थोंसे परिपूरित वह उषा (नमोभि:) समर्पणकी क्रियाओंसे और (हविषा) हविसे (देवान् ईळाना) देवोंको ढूंढती हुई, (प्राची) ऊपरकी ओर गति करती हुई (एति) आती है ।

समिध्यमानो अमृतस्य राजसि हविष्कृण्वन्तं सचसे स्वस्तये ।

विश्वं स धत्ते द्रविणं यमिन्वस्यातिथ्यमग्ने नि च धत्त इत् पुर: ।।

 

(अग्ने) हे अग्निदेव ! (समिध्यमान:) जब तू सुप्रदीप्त होता है तब (अमृतस्य राजसि) अमरताका राजा होता है और (हविष्कृण्वन्तं) यज्ञ-कर्त्ताको (स्वस्तये) वह आनन्दपूर्ण स्थिति देनेके लिये (सचसे) उसका आलिंगन करता है । (स:) वह तू (यम् आतिथ्यम् इन्वसि) जिसका अतिथि बनकर आता है (स: विश्वं द्रविणं धत्ते) वह अपने अन्दर सम्पूर्ण सारभूत ऐश्वर्य धारण करता है (च) और (पुर: इत् निधत्ते) वह तुझे अपने अन्दर सामनेकी ओर प्रतिष्ठित करता है ।

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अमरताके राजा देदीप्यमान अग्नि का सूक्त

 

अग्ने शर्ध महते सौभगाय तव द्युम्नान्युत्तमानि सन्तु ।

सं जास्पत्यं सुयममा कृणुष्व शत्रूयतामभि तिष्ठा महांसि ।।

 

(अग्ने) हे ज्वालारूप अग्निदेव ! (महते सौभगाय) आनन्दका विशाल उपभोग1 करनेके लिये (शर्ध) अपनी युद्ध करनेवाली शक्ति प्रकट कर । (तव उत्तमानि द्युम्नानि सन्तु) तेरी सर्वोत्तम दीप्तियाँ प्रकट हों, (सुयमं सं जास्पत्यम्) प्रभु और उसकी सहचरी शक्तिके सुनियन्त्रित एकत्व का (आ कृणुष्ण) निर्माण कर, (शत्रूयतां महांसि अभि तिष्ठ) विरोधी शक्तियों के महान् बलपर अपना पैर रख ।

समिद्धस्य प्रमहसोऽग्ने वन्दे तव श्रियम् ।

वृषभो द्युम्नवाँ असि समध्वरेष्विध्यसे ।।

 

(अग्ने) हे ज्वाला ! मै (तव) तेरी (समिद्धस्य प्रमहस: श्रियं) सुप्रदीप्त सामर्थ्यकी गरिमाका (वन्दे) वन्दन करता हूँ । (द्युम्नवान् वृषभ: असि) तू देदीप्यमान वृषभ--पुरुषशक्ति--है, (अध्वरेषु सम् इध्यसे) हमारे यज्ञोंकी प्रगतिमें तू सम्यक्तया प्रज्वलित होती है ।

समिद्धो अग्न आहुत देवान् यक्षि स्वध्वर ।

त्वं हि हव्यवाळसि ।।

 

(आहुत अग्ने) हे हमारी भेंटोंको ग्रहण करनेवाले ज्वालारूप अग्निदेव ! (सु-अध्वर) हे यज्ञके पूर्ण पथ-प्रदर्शक! तू (समिद्ध:) सुप्रदीप्त होकर (देवान् यक्षि) देवोंको हमारी हवि अर्पण कर, (हि) क्योंकि (त्वं) तू (हव्यवाट् असि) हमारी भेंटोंका वाहक है ।

आ जुहोता दुवस्यताऽग्निं प्रयत्यध्वरे ।

वृणीध्वं हव्यवाहनम् ।।

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1. वैदिक अमरता एक विशाल नि:श्रेयस है, दिव्य और असीम सत्ता-

  का विस्तृत उपभोग है जो आत्मा और प्रकृतिके पूर्ण एकत्व पर

  अवलंबित है । आत्मा अपना तथा अपने वातावरणका राजा बन

  जाता है जो अपने सभी स्तरों पर सचेतन होता है, उनका स्वामी

  होता हैं और प्रकृति होती है उसकी वधू जो विभाजनों और विरोधों-

  से मुक्त होकर अनन्त और प्रकाशपूर्ण समस्वरतामें पहुँच जाती है ।

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(अग्निम् आ जुहोत) हविरूप भेंट अग्निमें डालो । (अध्चरे प्रयति) जब तुम्हारा यज्ञ अपने लक्ष्यकी ओर प्रगति कर रहा हो तब (अग्निं दुव- स्वत) अपनी कायासे दिव्य संकल्पाग्निकी सेवा करो1 । (हव्यवाहनम् वृणीध्वम्) हमारी हविके वाहक अग्निदेवको स्वीकार करो2

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1.  या, ''संकल्पाग्निको क्रियारत करो ।''

2.  इस सूक्तके साथ अग्निके प्रति संबोधित ऋग्वेदके पाँचवे मण्डलके

   पहिले अट्ठाईस सूक्तोंकी यह शृंखला समाप्त होतीं है ।

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